राजा स्पर्श माँ भगवती के पुजारी थे और रात-दिन महामाई की पूजा किया करते थे। माँ ने भी उन्हें राजपाट, धन-दौलत, ऐशो-आराम के सभी साधन दिये थे, कमी थी तो सिर्फ यह कि उनके घर में कोई संतान नही थी। यह गम उन्हें दिन-रात सताता था। वो माँ से यही प्रार्थना करते थे कि माँ उन्हें एक लाल बख्श दें, ताकि वे भी संतान का सुख भोग सकें। उनके पीछे भी उनका नाम लेने वाला हो, उनका वंश चलता रहे। माँ ने उसकी पुकार सुन ली। एक दिन माँ ने आकर राजा को स्वप्न में दर्शन दिये और कहा कि वे उसकी तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने राजा को दो पुत्रियाँ प्राप्त होने का वरदान दिया।
कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्या ने जन्म लिया, राजा ने अपने राज दरबारियों को बुलाया, पण्डितों व ज्योतिषों को बुलाया और बच्ची की जन्म कुण्डली तैयार करने का आदेश दिया।पण्डित तथा ज्योतिषियों ने उस बच्ची की जन्म कुण्डली तैयार की और कहा कि वो कन्या तो साक्षात देवी है। यह कन्या जहाँ भी कदम रखेगी, वहाँ खुशियां ही खुशियां होंगी। कन्या भी भगवती की पुजारिन होगी। उस कन्या का नाम तारा रखा गया। थोड़े समय बाद राजा के घर वरदान के अनुसार एक और कन्या ने जन्म लिया। मंगलवार का दिन था।
पण्डितों और ज्योतिषियों ने जब जन्म कुण्डली तैयार की तो उदास हो गये। राजा ने उदासी का कारण पूछा तो वे कहने लगे की वह कन्या राजा के लिये शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्योतिषियों से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किये हैं जो कि इस कन्या ने उनके घर में जन्म लिया ? उस समय ज्योतिषियों ने ज्योतिष से अनुमान लगाकर बताया कि वे दोनो कन्याएं जिन्होंने उनके घर में जन्म लिया था, पूर्व जन्म में देवराज इन्द्र के दरबार की अप्सराएं थीं। उन्होंने सोचा कि वे भी मृत्युलोक में भ्रमण करें तथा देखें कि मृत्युलोक में लोग किस तरह रहते हैं। दोनो ने मृत्युलोक पर आकर एकादशी का व्रत रखा। बड़ी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूक्मन। बड़ी बहन तारा ने अपनी छोटी बहन से कहा कि रूक्मन आज एकादशी का व्रत है, हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना।अतः वो बाजार जाकर फल कुछ ले आये। रूक्मन बाजार फल लेने के लिये गई। वहां उसने मछली के पकोड़े बनते देखे। उसने अपने पैसों के तो पकोड़े खा लिये तथा तारा के लिये फल लेकर वापस आ गई और फल उसने तारा को दे दिये। तारा के पूछने पर उसने बताया कि उसने मछली के पकोड़े खा लिये हैं।
तारा ने उसको एकादशी के दिन माँस खाने के कारण शाप दिया कि वो निम्न योनियों में गिरे। छिपकली बनकर सारी उम्र ही कीड़े-मकोड़े खाती रहे।
उसी देश में एक ऋषि गुरू गोरख अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके शिष्यों में एक शिष्य तेज स्वभाव का तथा घमण्डी था। एक दिन वो घमण्डी शिष्य पानी का कमण्डल भरकर खुले स्थान में, एकान्त में, जाकर तपस्या पर बैठ गया। वो अपनी तपस्या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्यासी कपिला गाय आ गई। उस ऋषि के पास पड़े कमण्डल में पानी पीने के लिए उसने मुँह डाला और सारा पानी पी गई। जब कपिता गाय ने मुँह बाहर निकाला तो खाली कमण्डल की आवाज सुनकर उस ऋषि की समाधि टूटी। उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था।
ऋषि ने गुस्से में आ उस कपिला गाय को बहुत बुरी तरह चिमटे से मारा; जिससे वह गाय लहुलुहान हो गई। यह खबर गुरू गोरख को मिली तो उन्होंने कपिला गाय की हालत देखी। उन्होंने अपने उस शिष्य को बहुत बुरा-भला कहा और उसी वक्त आश्रम से निकाल दिया। गुरू गोरख ने गौ माता पर किये गये पाप से छुटकारा पाने के लिए कुछ समय बाद एक यज्ञ रचाया। इस यज्ञ का पता उस शिष्य को भी चल गया, जिसने कपिला गाय को मारा था। उसने सोचा कि वह अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। यज्ञ शुरू होने उस शिष्य ने एक पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्डारे में फेंक दिया; जिसका किसी को पता न चला। वह छिपकली जो पिछले जन्म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शाप को स्वीकार कर छिपकली बनी थी, सर्प का भण्डारे में गिरना देख रही थी।
उसे त्याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्डारा होने तक घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगो के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्योछावर कर लेने का मन ही मन निश्चय किया। जब खीर भण्डारे में दी जाने वाली थी, बाँटने वालों की आँखों के सामने ही वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुये खीर की कढ़ाई को खाली करने लगेतो उन्होंने उसमें मरे हुये सांप को देखा। तब जाकर सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपस्थित सभी सज्जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्तम मनुष्य जन्म प्राप्त हो तथा अन्त में वह मोक्ष को प्राप्त करे।
तीसरे जन्म में वह छिपकली राजा स्पर्श के घर कन्या के रूप में जन्मी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्य जन्म लेकर तारामती नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र के साथ विवाह किया।
राजा स्पर्श ने ज्योतिषियों से कन्या की कुण्डली बनवाई ज्योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्या आपके लिये हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। अत: वे उसे मरवा दें। राजा बोले कि लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। वे उस पाप का भागी नहीं बन सकते।
तब ज्योतिषियों ने विचार करके राय दी कि राजा उसे एक लकड़ी के सन्दूक में बन्द करके ऊपर से सोना-चांदी आदि जड़वा दें और फिर उस सन्दूक के भीतर लड़की को बन्द करके नदी में प्रवाहित करवा दें। सोने चांदी से जड़ा हुआ सन्दूक अवश्य ही कोई लालच में आकर निकाल लेगा और राजा को कन्या वध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ सन्दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया तो वह सन्दूक को नदी से बाहर निकाल लाया।
उसने जब सन्दूक खोला तो सोने-चांदी के अतिरिक्त अत्यन्त रूपवान कन्या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्नी को वह कन्या लाकर दी तो पत्नी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्तनो में दूध उतर आया, पति-पत्नी दोनो ने प्रेम से कन्या का नाम रूक्को रख दिया। रूक्को बड़ी हुई तो उसका विवाह हुआ। रूक्को की सास महाराजा हरिश्चन्द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई तो तो रूक्को महाराजा हरिश्चन्द्र के घर काम करने के लिये पहुँच गई। महाराज की पत्नी तारामती ने जब रूक्को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्म के पुण्य से उसे पहचान गई। तारामती ने रूक्को से कहा की वो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूक्को बोली कि वो एक नीचि जाति की भंगिन है, भला वह रानी के पास कैसे बैठ सकती थी ?
तब तारामती ने उसे बताया कि वह उसके पूर्व जन्म के सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने के कारण उसे छिपकली की योनि में जाना पड़ा जो होना था। जो होना था वो तो हो चुका। अब उसे अपने वर्तमान जन्म को सुधारने का उपाय करना चाहिये और भगवती वैष्णों माता की सेवा करके अपना जन्म सफल बनाना चाहिये। यह सुनकर रूक्को को बड़ी प्रसन्नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो रानी ने बताया कि वैष्णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन व जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूर्ण होती हैं।
रूक्को ने प्रसन्न होकर माता की मनौती मानते हुये कहा कि यदि
माता की कृपा से उसे एक पुत्र प्राप्त हो गया तो वो माता का
पूजन व जागरण करायेगी। माता ने प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।
फलस्वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्यन्त सुन्दर बालक
ने जन्म लिया; परन्तु दुर्भाग्यवश रूक्को को माता का
पूजन-जागरण कराने का ध्यान न रहा। जब वह बालक पांच वर्ष का
हुआ तो एक दिन उसे माता (-चेचक) निकल आई। रूक्को दु:खी होकर
अपने पूर्वजन्म की बहन तारामती के पास आई और बच्चे की बीमारी
का सब वृतान्त कह सुनाया। तब तारामती ने पूछा कि उससे माता के
पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई । इस पर रूक्को को छह वर्ष पहले
की बात याद आ गई। उसने अपराध स्वीकार कर लिया। उसने फिर मन
में निश्चय किया कि बच्चे को आराम आने पर जागरण अवश्य
करवायेगी।